बुद्धि अच्छी चीज है, पर कोरी बौद्धिकता ही सब कुछ नहीं है। इससे व्यक्ति के जीवन में नीरसता और शुष्कता आती है। ज्ञान अंतर्दृष्टि से अनुबंधित है, इसलिए यह अपने साथ सरसता लाता है। ज्ञानी व्यक्तियों के लिए पुस्तकीय अध्ययन की विशेष अपेक्षा नहीं रहती। भगवान महावीर ने कब पढ़ी थीं पुस्तकेंट आचार्य भिक्षु, संत तुलसी, संत कबीर अदि जितने ज्ञानवान पुरुष हुए हैं, उनमें कोई भी पंडित नहीं थे। अंतर्दर्शन उनकी ज्ञानमयी चेतना की स्फुरणा करता था। इसके आधार पर ही उन्होंने गंभीर तत्वों का विश्लेषण किया। वे यदि पुस्तकों के आधार पर प्रतिबोध देते तो संसार को कोई नया दृष्टिकोण नहीं दे सकते थे। 
एक बात और ज्ञातव्य है। विद्वान बहुत पढ़े-लिखे होते हैं, पर वे आज तक भी किसी ज्ञानी को पराजित नहीं कर सके। इंद्रभूति महापंडित थे। उनका पांडित्य विश्रुत था। पर वे भगवान महावीर की ज्ञान चेतना का अनुभव करते ही पराभूत हो गए। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। ज्ञान और बुद्धि की परस्पर कोई तुलना नहीं है।  
बुद्धि कुंड का पानी है और ज्ञान कुएं का पानी है। कुंड का पानी जितना है उतना ही रहता है। वर्षा होती है तो पानी थोड़ा बढ़ जाता है। इसी प्रकार अनुकूल सामग्री और पुरुषार्थ का योग होता है तो बुद्धि बढ़ जाती है। अन्यथा उसके विकास की कोई संभावना नहीं रहती। कुएं से जितना पानी निकाला जाता है, नीचे से और आता रहता है। वह कभी चुकता नहीं है, उसमें नए अनुभव जुड़ते जाते हैं। 
बुद्धि आवश्यक है किंतु उसके आधार पर कभी आत्म-दर्शन नहीं हो पाता। आत्म-दर्शन का पथ है ज्ञान। ज्ञान तब तक उपलब्ध नहीं होता जब तक ध्यान का अभ्यास न हो। जिस व्यक्ति को अंतर्दृष्टि का उद्घाटन करना है, ज्ञानी बनना है, उसे प्रेक्षाध्यान साधना का आलंबन स्वीकार करना होगा। ऐसा करके वह ज्ञान की श्रेष्ठता को प्रमाणित कर सकता है।