सत्ता-संपदा का उन्माद
मनुष्य विचारशील प्राणी है, विवेकशील प्राणी है। उसके पास बुद्धि है, शक्ति है। वह अपनी बुद्धि का उपयोग करता है, चिंतन के हर कोण पर रुकता है, विवेक को जगाता है, शक्ति का नियोजन करता है और संसार के अन्य प्राणियों से बेहतर जीवन जीता है। जीने के लिए वह अनेक प्रकार की सुविधाओं को जुटाता है। सत्ता और संपदा ये तो ऐसे तत्व हैं, जिनका आकषर्ण अधिकांश लोगों को बना रहता है। सत्ता के मूल में सेवा की भावना है और संपदा के मूल में जीवनयापन की। न सत्ता के बल पर कोई व्यक्ति बड़ा बनता है और न संपदा ही किसी को शिखर पर बिठा सकती है। जो लोग सेवा की पवित्र भावना से सत्ता के गलियारे में पांव रखते हैं और जीवनयापन के साधन के रूप में अर्थ का उपयोग करते हैं, वे सत्ता और संपदा प्राप्त करके भी कुछ अतिरिक्त अनुभव नहीं करते। सहज सादगीमय जीवन जीते हुए वे सत्ता और संपदा के द्वारा हितकारी प्रवृत्तियों में संलग्न हो जाते हैं।
कुछ लोगों की अवधारणा है कि व्यक्ति का अस्तित्व और व्यक्तित्व सत्ता और संपदा पर ही निर्भर है। इसलिए वे जैसे-तैसे इन्हें हथियाने का प्रयास करते हैं और ये हस्तगत हो जाएं तो इनका उचित-अनुचित लाभ भी उठा लेते हैं। ऐसे लोगों में न तो सेवा की भावना होती है और न ही वे उपयोगितावादी दृष्टि से अर्थ का अंकन करते हैं। इनके द्वारा अहंकार बढ़ता है और वे स्वयं को आम आदमी से बहुत बड़ा मानने लगते हैं। यहीं से एक भेद-रेखा बनने लगती है, जो सत्ताधीश और संपत्तिशाली को दूसरे नजरिए से देखने का धरातल तैयार करती है। जिस व्यक्ति के पास सत्ता हो और संपदा हो, फिर भी उन्माद न हो; बहुत कठिन बात है। इन दोनों में से एक पर अधिकार पाने वाला व्यक्ति भी मूढ़ हो सकता है। जहां दोनों का योग हो जाए, वहां मूढ़ता न आए, यह तो संभव ही नहीं है। इस बात को सब लोग जानते हैं, फिर भी सत्ता और संपदा पाने की आकांक्षा का संवरण नहीं होता। जिनकी आकांक्षा पूरी हो जाती है, वे सौभाग्य से ही मूढ़ता से बच पाते हैं। किंतु जिनकी आकांक्षा पूरी नहीं होती, वे एक दूसरे प्रकार के उन्माद का शिकार हो जाते हैं।